neyaz ahmad nizami

Thursday, April 27, 2017

कव्वों की एकता (डा0 गूलाम जाबिर शम्स)


कव्वा बे ज़ुबान है नहीं......ज़ुबान रखता है ...... हम नहीं समझते......एक कव्वा पकङ कर देखो......एक कव्वा मार कर देखो......कोई ख़बर करे,ना करे......ख़ुद बाख़बर रहते हैं......बा ख़बर रखते हैं......आनन फानन सब जमा हो जाएंगे......जैसे बारिश में मेंढक टर टरा कर आसमान सर पर उठा लेते हैं......इसी तरह यह भी कांय कांय कर के सातों आसमान सर पर उठा लेंगे......कांव कांव के शोर से अन्दाज़ा होगा……जैसे कहते होंगे,किस ने मारा......क्यूं मारा......कैसे मारा......कहां मारा......कब मारा......देखो उस को......ढूंडो उसको......पकङो उस को......पूछो उस से.......सज़ा दो उस को......क़ैद करो उस को......क़त्ल करो उस को......आज एक मरा.......कल दो मरेंगे......परसों तीन मरेंगे......यूं हमारी नस्ल खत्म हो जाएगी......लेकिन हाय रे मुसलमान!कोई पिटता है...... तो पिटा करे......कोई क़ैद होता है.......तो हुआ करे......कोई क़त्ल करता है......तो किया करे......कोई मरता है......तो मरा करे......ना किसी को फिक्र......ना किसी को दर्द......ना दवा......ना तरस.......ना तङप.......ना मुहब्बत......ना अख़ुअत (भाई चारा)......ना जज़ब-ए-इत्तेहाद......ऐ काश! मुसलमान कव्वों से ही सही......मुहब्बत व इत्तेहाद का सबक़ सीख तो लेते......कव्वा बाहर से काला है......अन्दर से उजाला है......क्य मुसलमान ज़ाहिर से सफेद है.....बातिन से सेयाह (काला) है......अगर ऐसा है......तो ऐसे मुसलमानों को......कव्वों से उजालों की भीक मांग लेनी चाहिए......ऐसे साफ दिल कव्वों को......जिस किसी ने ज़िबह कर के खाने का हुक्म दिया......यक़ीनन उस का दिल रहम से ख़ाली था......शायद यह एहतजाज उसी बे रहम के ख़ेलाफ था।। (बोलती तस्वीरें पेज 15 डा0 ग़ुलाम जाबिर शम्स मिस्बाही)
तरजुमा व तस्हील
 Neyaz Ahmad Nizami

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