तक़दीर (क़िस्मत)
अल्लाह के इल्म ( ज्ञान ) में जो कुछ आलम (दुनिया) में होने वाला था और जो कुछ बन्दे करने वाले थे उस को अल्लाह तआला ने पहले ही से जान कर लिख लिया, किसी की क़िस्मत में भलाई लिखी और किसी की क़िस्मत में बुराई लिखी,उस लिख देने ने बन्दा को मजबूर नही कर दिया कि जो अल्लाह तआला ने लिख दिया है वह बन्दा को मजबूरन करना पङता है, बल्कि बन्दा जैसा करने वाला था वैसा ही उसने लिख दिया,किसी आदमी की क़िस्मत में बुराई लिखी तो इस लिए कि यह आदमी बुराई करने वाला था अगर यह भलाई करने वाला होता तो उस की क़िस्मत में भलाई ही लिखता,अल्लाह तआला के इल्म ने या अल्लाह तआला के लिख देने ने किसी को मजबूर नही कर दिया, मसअला: तक़दीर के मसअला (विषय) में ग़ौर और बहंस मना है बस इतना समझ लेना चाहिए कि आदमी पत्थर की तरह बिल्कुल मजबूर नही है कि उस का एरादा कुछ हो ही नहीं,बल्की अल्लाह तआला ने आदमी को एक तरह का इख्तेयार (स्वतंत्र) दिया है कि एक काम चाहे करे चाहे ना करे, इसी इख्तेयार की बिना पर नेकी (पुन्य) बदी (पाप) की निस्बत बन्दे की तरफ है, अपने आप को बिल्कूल मजबूर या बिल्कूल मुख्तार (स्वतंत्र) समझना दोनो गुमराही (रास्ता से भटकना) है।
बुरे काम की निस्बत किस की तरफ की जाए
मसअला: बुरा काम करके यह ना कहना चाहिए कि खुदा ने चाहा तो हुआ तक़दीर में था तो किया,कि यह बेअदबी है,बल्कि हुक्म यह है कि अच्छे काम को कहे कि खुदा की तरफ से हुआ और बुरे काम को अपने नफस (अंतरआत्मा) की शरारत जाने।।
(क़ानून-ए-शरीयात, हिस्सा 1, पेज 17)
Neyaz Ahmad Nizami
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