neyaz ahmad nizami

Friday, March 24, 2017

मायूसी और शुक्र

N e y a z   A h m a d   N i z a m i

इन्सान में ख़्वाहिशात पैदा होती रहती हैं यह इन्सानी नफ्स (अंतरआत्मा) की पैदावार होती है। यह इतनी अधिक होती हैं कि एक बन्दा उन सभी को अमली जामा नहीं पहना सकता और उनमें से कुछ ऐसी भी होती हैं, जिन पर अमल की इजाज़त इ
दरअसल यह कुछ आज़माईश होती हैं। इन्सान को उनमें गुजरना पड़ता है और इन सब मामलो का सामना करना पड़ता है। ऐसे मौके पर हौसला हार देना मायूसी है। मुश्किल समय में निराश हो जाने का नाम बहादुरी नहीं है। इंसान को साबित क़दम रहना चाहिए और अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए। दूसरों मिसाली शख्सियत ढूंढने की बजाय ख़ूद एक नमूना बनकर मनुष्यों के बीच रहनुमाई की वजह बन जाना चाहिए। इस क़ौम को अब उम्मीद की जरूरत है। इसके लिए कड़ी मेहनत की जरूरत है। जब इन्सान दुखी हो, परेशान हो तो उसे चाहिए कि वह लोगों के दुख दर्द को जाने।
न जाने कितने लोग अनगिनत समस्याओं के शिकार नजर आएंगे। हमारे समय में अखबारों और समाचार प्रसारित करने वाले यंत्र से आम जनता के दुख दर्द से जब दुनिया की समस्याएं सुनेगा या देखेगा तो वह अपनी समस्याएं भूलकर ख़िदमत-खल्क़ (मानव सेवा) का सोचना शुरू कर देगा कि उसके तो समस्या ही छोटे थे। शुक्र अदा करने के लिए सबसे अच्छा तरीका पनमाज़ अदा करना है तो इसके लिए वह मस्जिद की राह पकड़ेगा और मस्जिद में नमाज पढ़कर वह रब का शुक्रगुजार बन्दा बन जाएगा। तो ख़ुद बख़ुद उस के दिल से बोझ उतर जाएगा और वह लोगों को नेक निगाहों से देखना शुरू कर देगा। उस को इनेसानियत से प्यार होना शुरू हो जाएगी। वही लोग जिन्हें थोड़ी देर पहले वह घर में बैठा कर बुरा भला कह रहा था अब वही अल्लाह की बेहतरीन मख़लूक के तौर पे नजर आ रहे होंगे। मस्जिद जाकर बड़े कठोर लोग भी नरम हो जाते हैं। तो मायुसी का शिकार बन्दा उनके अपनाईयत भरे व्यवहार से जरूर प्रभावित होगा और उस के जीवन में आसानी के बगुत से रास्ते खुलती चली जाएंगी और वे फिर से एक नरम, और संतुष्ट , मुतमइन इन्सान के रूप में जीवन बसर करना शुरू कर सकता है
न्सान की समाज, धर्म और अख़लाक़ी किरदार हरगिज़ नहीं देतीं। फिर यह इन्सानी दामाग के किसी कोने में एकट्ठा होना शुरू हो जाती हैं। आम तौर पर इन्सान समझता है कि वह उन्हें भूल चुका है। दरअसल वह उसके मन में अंजान तौर से मौजूद रहती हैं। लेकिन उनका इज़हार या एहसास आम हालत में नहीं होता। इस मामले का संबंध किसी दुर्घटना या किसी ख़ूशी से हो सकता है। मिसाल के तौर पे आदमी पर कभी कोई मुश्किल समय आन पड़ता है और उसे ऐसा लगता है कि मेरा कोई साथी नहीं है। पूरी दुनिया में अकेला हूँ मेरी मजबूरीयों को कोई नहीं समझ सकता और कोई भी मेरी मदद करने को तैयार नहीं। तो इन हालात में उसके अंजान में दबी हुई ख़्वाहिशात एक बदले के जज़बे की सूरत में सर उठाती हैं। उस के होश व हवास पर बदले का जज़बा तारी होने लगता है। वह उन हालतों को को याद करता है जब कभी वह दूसरों पर अहसान किया हो। उन्हें याद करके वह अपने किए हुए अच्छे कर्मों को अपनी बेवकूफी समझता है। वह दलील के साथ सोचता है कि यह समाज बे हिस है। सभी लोग बेवफा हैं। उनसे भलाई की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए यह यह जज़बात दिमागी तौर पे उसे भङका देती है। उसके पास नफरत के बीज बोने के अलावा कोई चारा नहीं होता। यह एक मुश्किल समय होता है। इस दौरान इंसान अगर अपनी अना (हम) की खातिर या जज़बाती तनाव के कारण एक नकारात्मक सोच के दामन में अपनी पनाह ढूंढ ले तो यह सुरते हाल उसके आने वाले जीवन के लिए खतरनाक साबित होती है। क्यूं कि यह वह मोड़ होता है जब वह फैसला करने और एरादा करने की ताक़त से ना उम्मीद होता है । तब अच्छाई और बुराई में कोई फर्क़ नहीं दिखती। ऐसे कड़े समय में अगर वह सब्र (धैर्य) का दामन थाम कर तुरंत फैसला करने से बाज़ रहे तो भविष्य में अच्छे परिणाम हासिल हो सकते हैं।
और अगर वह
जज़बाती दबाव के समय नकारात्मक भावनाओं की भेंट चढ़ जाए तो उसकी लहरों का रुख विध्वंसक गतिविधियों की ओर मुड़ सकता है और वह नफरतों को परवान चढ़ा सकता है। वह अपना जीवन शैली बदल सकता है। लेकिन अल्लाह तबारक व तआला ने इंसान के अंदर एक बात बतौर मुहतसिब (लोकपाल) रखी है। वह है उसका ज़मीर। जब कभी इंसान मुखर (बेबाक) हो जाए। और हकीकतो से इन्कार करना शुरू कर दे और गैर मुहज़्ज़ब (असभ्य) सरगरमियो में शामिल हो जाए तो कभी न कभी उसके अंदर से आवाज आती है कि यह सब कार्रवाई गलत हैं। मुझे यह सब छोड़ देना चाहिए। यह एक दूसरा महत्वपूर्ण मौक़ा होता है। इस अवसर पर भी उसके कुव्वते फैसला का परीक्षण होता है। यदि वह हकीक़तों को मानकर अपने जीवन को वापस सही रास्ते पर ले आए तो वह मजबूत क़ुव्वते अरादी शामिल हो सकता है। लेकिन अगर वह इस बिंदु पर भी बहक जाए तो यह भी नफ्स और शैतान की एक चाल होती है और शैतान तो इंसान का खुला दुश्मन है। फिर इन्सान अपने दुश्मनका दोस्त क्यों बन जाता है। वे अपने दुश्मन के साथ जंग क्यों नहीं करता। हालांकि उसका दुश्मन तो पहले दिन से ऐलान-ए- जंग कर के बर सरे पैकार है और इन्सान आख़री फैसला करने से महरूम

 निबंधकार:
 अब्द - उल - रज्ज़ाक क़ादरी


तर्जुमा व तस्हील
Neyaz Ahmad Nizami

..........

No comments:

Post a Comment